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30 November, 2013

"मेरा बचपन" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"मेरा बचपन"
जब से उम्र हुई है पचपन। 
फिर से आया मेरा बचपन।। 

पोती-पोतों की फुलवारी, 
महक रही है क्यारी-क्यारी, 
भरा हुआ कितना अपनापन। 
फिर से आया मेरा बचपन।। 
इन्हें मनाना अच्छा लगता, 
कथा सुनाना अच्छा लगता, 
भोला-भाला है इनका मन। 
फिर से आया मेरा बचपन।।  

मुन्नी तुतले बोल सुनाती, 
मिश्री कानों में घुल जाती, 
चहक रहा जीवन का उपवन। 
फिर से आया मेरा बचपन।। 
बादल जब जल को बरसाता,
गलियों में पानी भर जाता, 
गीला सा हो जाता आँगन। 
फिर से आया मेरा बचपन।। 
कागज की नौका बन जाती,
कभी डूबती और उतराती, 
ढलता जाता यों ही जीवन। 
फिर से आया मेरा बचपन।।

26 November, 2013

"हाथ जलने लगे" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"हाथ जलने लगे"
करते-करते भजन, स्वार्थ छलने लगे। 
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।  

झूमती घाटियों में, हवा बे-रहम, 
घूमती वादियों में, हया  बे-शरम, 
शीत में है तपन, हिम पिघलने लगे। 
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।  

उम्र भर जख्म पर जख्म खाते रहे, 
फूल गुलशन में हरदम खिलाते रहे, 
गुल ने ओढ़ी चुभन, घाव पलने लगे। 
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।  

हो रहा हर जगह, धन से धन का मिलन, 
रो रहा हर जगह, भाई-चारा अमन,  
नाम है आचमन, जाम ढलने लगे।  
करते-करते यजन, हाथ जलने लगे।।

22 November, 2013

"लगे खाने-कमाने में" (डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"लगे खाने-कमाने में"
छलक जाते हैं अब आँसूग़ज़ल को गुनगुनाने में।
नही है चैन और आरामइस जालिम जमाने में।।

नदी-तालाब खुद प्यासेचमन में घुट रही साँसें,
प्रभू के नाम पर योगीलगे खाने-कमाने में।

हुए बेडौल तनचादर सिमट कर हो गई छोटी,
शजर मशगूल हैं अपने फलों को आज खाने में।

दरकते जा रहे अब तोहमारी नींव के पत्थर,
चिरागों ने लगाई आगखुद ही आशियाने में।

लगे हैं पुण्य पर पहरेदया के बन्द दरवाजे,
दुआएँ कैद हैं अब तोगुनाहों की दुकानों में।

जिधर देखो उधर ही “रूप” का, सामान बिकता है,
रईसों के यहाँ अब, इल्म रहता पायदानों में।

19 November, 2013

"महक कहाँ से पाऊँ मैं" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"महक कहाँ से पाऊँ मैं"
पतझड़ के मौसम में,
सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

बीज वही हैं, वही धरा है,
ताल-मेल अनुबन्ध नही,
हर बिरुअे पर 
धान 
लदे हैं,
लेकिन उनमें गन्ध नही,
खाद रसायन वाले देकर,
महक कहाँ से पाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

उड़ा ले गई पश्चिम वाली,
आँधी सब लज्जा-आभूषण,
गाँवों के अंचल में उभरा,
नगरों का चारित्रिक दूषण,
पककर हुए कठोर पात्र अब,
क्या आकार बनाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

गुरुवर से भयभीत छात्र,
अब नहीं दिखाई देते हैं,
शिष्यों से अध्यापक अब तो,
डरे-डरे से रहते हैं,
संकर नस्लों को अब कैसे,
गीता ज्ञान कराऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?
पतझड़ के मौसम में,
सुन्दर सुमन कहाँ से लाऊँ मैं?
वीराने मरुथल में,
कैसे उपवन को चहकाऊँ मैं?

15 November, 2013

"बादल आये रे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"बादल आये रे"
जिसको अपना मधुर स्वर दिया है
अर्चना चाव जी ने...!
चौमासे में आसमान में,
घिर-घिर बादल आये रे!
श्याम-घटाएँ विरहनिया के,
मन में आग लगाए रे!!

उनके लिए सुखद चौमासा,
पास बसे जिनके प्रियतम,
कुण्ठित है उनकी अभिलाषा,
दूर बसे जिनके साजन ,
वैरिन बदली खारे जल को,
नयनों से बरसाए रे!
श्याम-घटाएँ विरहनिया के,
मन में आग लगाए रे!!

पुरवा की जब पड़ीं फुहारें,
ताप धरा का बहुत बढ़ा,
मस्त हवाओं के आने से ,
मन का पारा बहुत चढ़ा,
नील-गगन के इन्द्रधनुष भी,
मन को नहीं सुहाए रे!
श्याम-घटाएँ विरहनिया के,
मन में आग लगाए रे!!

जिनके घर पक्के-पक्के हैं,
बारिश उनका ताप हरे,
जिनके घर कच्चे-कच्चे हैं,
उनके आँगन पंक भरे,
कंगाली में आटा गीला,
हर-पल भूख सताए रे!
श्याम-घटाएँ विरहनिया के,
मन में आग लगाए रे!!

11 November, 2013

"क्या हो गया है?" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"क्या हो गया है?"

आज मेरे देश को क्या हो गया है?
मख़मली परिवेश को क्या हो गया है??
पुष्प-कलिकाओं पे भँवरे, रात-दिन मँडरा रहे,
बागवाँ बनकर लुटेरे, वाटिका को खा रहे,
सत्य के उपदेश को क्या हो गया है?

मख़मली परिवेश को क्या हो गया है??

धर्म-मज़हब का हमारे देश में सम्मान है,
जियो-जीने दो, यही तो कुदरती फरमान है,

आज इस आदेश को क्या हो गया है?
मख़मली परिवेश को क्या हो गया है??

खोजते दैर-ओ-हरम में राम और रहमान को,
एकदेशी समझते हैं, लोग अब भगवान को,
धार्मिक सन्देश को क्या हो गया है?
मख़मली परिवेश को क्या हो गया है??

06 November, 2013

"आओ चलें गाँव की ओर" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"आओ चलें गाँव की ओर"

छोड़ नगर का मोह, 
आओ चलें गाँव की ओर! 
मन से त्यागें ऊहापोह, 
आओ चलें गाँव की ओर! 

ताल-तलैय्या, नदिया-नाले, 
गाय चराये बनकर ग्वाले, 
जगायें अपनापन व्यामोह, 
आओ चलें गाँव की ओर! 

खेतों में हल लेकर जायें, 
भाभी भोजन लेकर आयें, 
मट्ठा बाट रहा है जोह! 
आओ चलें गाँव की ओर! 

चौमासे में आल्हा गायें, 
बैठ डाल पर जामुन खायें, 
रक्खें नही बैर और द्रोह! 
आओ चलें गाँव की ओर!

02 November, 2013

"बादल भी छँट जायेंगे" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक')

मेरे काव्य संग्रह "धरा के रंग" से
एक गीत
"बादल भी छँट जायेंगे"
flower-rose-leaves-plants-thronsएकता से बढाओ मिलाकर कदम,
रास्ते हँसते-हँसते ही कट जायेंगे।
सूर्य की रश्मियों के प्रबल ताप से,
बदलियाँ और बादल भी छँट जायेंगे।

पथ है काँटों भरा, लक्ष्य भी दूर है,
किन्तु मन में लगन जिसके भरपूर है,
होशियारी से आगे बढ़ाना कदम,
फासले सारे पल भर में घट जायेंगे।

भेद और भाव मन में न लाना कभी,
रब की सन्तान ही हैं सभी आदमी,
बात करना तसल्ली से मिल-बैठकर,
प्यार से सारे मसले निबट जायेंगे।

फूल रखता नही शूल से दूरियाँ,
साथ रहना है दोनों की मजबूरियाँ,
खार रक्षा करे, गुल लुटाये महक,
सारे सन्ताप खुद ही तो हट जायेंगे।

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